आज की बुनियाद कल ही लिख गए थे युगदृष्टा डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर ......गौरव धाकड़

आज की बुनियाद कल ही लिख गए थे युगदृष्टा डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर इसे दुर्भाग्य ही कहना उचित होगा कि पूरा विश्व डॉ भीमराव अंबेडकर को एक विधिज्ञ, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री ,प्रगतिशील सोच के प्रतिनिधि के रूप में जानता है वहीं उनकी जन्मभूमि व कर्मभूमि भारत मे लगभग समूची आबादी उन्हें केवल  एक समतावादी और ऊंच-नीच के विरुद्ध लड़ने वाले महापुरुष के रूप में ही याद करती है । भारतवर्ष में डॉ आंबेडकर का पूरा व्यक्तित्व केवल और केवल सामाजिक न्याय के मुद्दे पर समेट कर रख दिया गया है ,चाहे वो  उन्हें बाबासाहेब या जय भीम कहकर पसंद करने वाले हो या  संविधान या आरक्षण को लेकर असहज रहने वाले विरोधी ही क्यों न हो ! और भी अधिक विस्मय की बात यह है कि समर्थक उन्हें "आरक्षण और संविधान" जैसे दो शब्दों मात्र की महानता में सीमित कर देते है तो विरोधी  इन्ही दो शब्दों को समूची भारतीयता का खतरा बताने में पूरी ऊर्जा लगाकर अम्बेडकर का अवमूल्यांकलन का हर यत्न करते हैं । खैर ,जब भी विदेशों में विशेषकर विश्व के शीर्षस्थ अकादमिक प्रतिष्ठानों में यदि  बाबासाहेब के प्रति सन्मान का भारत मे हो रही उनकी कथित भक्ति या विरोध दोनो में तुलना की जाय तो  इतना तो बिल्कुल तय है कि हम भारतीयों ने अपने विश्व मानव को अपनी कूपमण्डुक व सीमित दृष्टि में बांध रख छोड़ा है । 
                    डॉ अंबेडकर के विचारों को तोड़ मरोड़कर पेश करने में न तो समर्थक पीछे हैं और विरोधियों का तो फिर यह एकमेव कर्तव्य ही ठहरा । मसलन भारत मे विरले ही  चर्चा होती है डॉ अंबेडकर के "प्रॉब्लम ऑफ रूपी" जैसे अकादमिक कार्य की जो आज भी मंदी जैसे हालातो में विश्व की सिरमौर अर्थव्यवस्थाओं के लड़खड़ाते कदमों को संभाल गया या न ही चर्चा होती है उनके " ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास' जैसे शोध प्रबंध की जिसने स्वातन्त्रेत्तर भारत मे कई बार उभर कर आये केंद्र-राज्य सम्बन्धों को कड़वाहट को सुलझने व संघीय ढांचे में वित्तीय अधिकारों के बटवारें को दिशा दी । आधुनिक भारत की अर्थतंत्र की शिल्पज्ञ संस्थाओं में अहम रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और वित्त आयोग बानगी है उस दौर में जन्मे डॉ आंबेडकर की इस दौर के भारत के प्रति प्रासंगिक शोध प्रविधि के जो उनके विश्व प्रसिध्द शोध प्रबन्धों के आधार पर ही स्थापित हुये ।यद्यपि डॉ आंबेडकर की महानता को भारत का संविधान जैसे ग्रन्थ से जोड़ा जाना भी कतई गलत नही जोकि अपने आप मे एक ऐसा महत्वपूर्ण व आधारभूत ग्रंथ है जो न केवल आज के भारत को विश्व की बड़ी शक्तियों के सामने न सिर्फ खड़ा रहने जैसा मजबूत तंत्र दे सका बल्कि आधुनिकता की अंधाधुंध में संस्कृति के बहाव की गति क्या हो यह भी तय कर गया डॉ अंबेडकर की विलक्षण मेधा और संस्कृति के संदर्भ मर कहा गतिशीलता आवश्यक है और कहां नही यह दृष्टिकोण इस बात से समझना आसान होगा कि जहां संस्कृति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकार को संविधान में समाविष्ट कर उन्होंने संस्कृति को अपनाए रखने की पुरजोर वकालत की , वहीं हिन्दू विवाह संहिता, हिन्दू उत्तराधिकार संहिता, हिन्दू दत्तक संहिता जैसे अधिनियमों के रास्ते संस्कृति के असमातामूलक पक्ष पर आक्रमण कर उसे हटाने की पहल की। 
                      देश की आर्थिक प्रगति में सामाजिक विषमता को प्रमुख मुद्दा मानते हुए आजीवन सामाजिक न्याय के पुरजोर समर्थक रहें डॉ आंबेडकर द्वारा विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में अनुसूचित जाति व जनजातियों जैसे अत्यंत पिछड़े वर्ग  की सहभागिता सुनिश्चित करने की मंशा से आरक्षण अवश्य प्रावधानित किया लेकिन वह केवल अधिकार परिप्रेक्ष्य मात्र तक सीमित हैं ,ऐसा शायद ही कोई विधिज्ञ या निष्पक्ष समाजशास्त्री उचित व तर्कसम्मत विश्लेषण से कह सकेगा । अम्बेडकर का समता अर्थात इक्विटी का  विचार संसाधनों पर समान अधिकार व पहुंच जैसे आदर्श स्थिति को लेकर केंद्रित था जिसे अधिकारों की थाती बताया जाना अपने आप मे समता की मूल भावना का अपमान है । अपितु अम्बेडकर तो संवैधानिक नैतिकता के पैरोकार हुए व उन्होंने इस नैतिकता को संविधान की प्रस्तावना के माध्यम से महिमामंडित करने का प्रयास किया । इस प्रयास को देश की न तो तत्कालीन कम शिक्षित नागरिक आबादी समझ सकी और न ही आज की डिग्रियों की श्रंखलायें खड़ी करने वाले नागरिक । सम्भवतः इसलिए नीति निर्माताओं को आगे चल कर मौलिक कर्तव्यों का स्प्ष्ट उल्लेख कर स्प्ष्ट रूप से अधिकारों व कर्तव्यों का संतुलन बैठाने की कोशिश की । आज जब हम वैश्विक महामारी जैसे संकट में शासन व्यवस्था को विपन्न के लिए अन्न का प्रबंध करते देखतें है तो ये अम्बेडकर की प्रस्तावना में उल्लेखित आर्थिक न्याय का ही सफलीभूत स्वरूप है । मौलिक कर्तव्यों को भले डॉ आंबेडकर ने मूल संविधान में समाविष्ट न किया हो लेकिन प्रस्तावना की शपथ संवैधानिक नैतिकता के रूप में नागरिकों को राष्ट्र के प्रति कर्तव्य परायण होने सम्बन्धी कर्तव्यों का ही आग्रह करती है । आज भारत की उभरती वैश्विक भूमिका का प्रश्न हो या वैश्विक महामारी के सम्मुख दीप प्रज्ज्वलित कर खड़े सवा सौ करोड़ भारतीयों की प्रतिबद्धता का, या फिर चंद गैर जिम्मेदार नागरिकों का ही प्रश्न क्यों न हो , उत्तर व प्रेरणा दोनो डॉ आंबेडकर द्वारा आग्रहित संवैधानिक नैतिकता में ही छुपा है।  
                  आज की सरकारों का विजनरी प्रयास नदी मार्ग विकास की योजना का खाका उन्होने 1945 में ही रख दिया था यहीं नही आजादी से लेकर अब तक लिखी गई विकास की इबारत में अहम बड़े बांध, जलविद्युत परियोजनायें ,औद्योगीकरण या नदी जोड़ो परियोजनाएं भी उनके इसी प्रस्तावित खाके पर ही केंद्रित था । उनकी पुरजोर असहमति के बाद भी कांग्रेस द्वारा भाषाई प्रान्तों के गठन की राह पकड़ी तो भी उन्होंने संविधान निर्माण में एकल नागरिकता व एकल न्यायपालिका पर जो दृढ़ता अपनाई  अम्बेडकर की वहीं दूरद्रष्टिता थी जो वर्तमान सरकार के "एक भारत श्रेष्ठ भारत" के विजन के बहुत करीब आकर बैठती है । वहीं बंधुत्व जैसे शब्दों के भारतीय संविधान में प्रयोग की उनकी पुरजोर वकालत ही न केवल आज के अपितु आने वाले सैकड़ो वर्षो तक भारतीयों में भारतीयता का राष्ट्रवाद स्फूर्त करेगी । बड़े राज्यो के छोटे  छोटे राज्यो में विभाजन की उनकी कार्ययोजना ही है जो मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश व बिहार जैसे राज्यो के विकास की कथा को सुगम्य बना सकी तो भविष्य के लिए भी एक दिशा तय की ।
                       विश्व का सबसे लचीला संविधान रचित करने के बाद भी वे स्वयं प्रथम व्यक्ति थे जो ये कहते थे कि दुरुपयोग की स्थिति में मैं प्रथम व्यक्ति होऊंगा जो इस संविधान को जलायेगा ।अम्बेडकर एक बात बड़ी स्प्ष्ट कह गए  जो आज और आने वाले कल के नीति निर्माताओ का पथ सदा प्रशस्त करता रहेगा -  
  “However good a Constitution may be, it is sure to turn out bad because those who are called to work it, happen to be a bad lot”
"एक अच्छा संविधान भी बुरा हो सकता है यदि उसे बुरे व्यक्तियों के हाथ मे सौंप दिया जाय" 



गौरव धाकड़ 
फेलो , स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज, 
 देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी 


प्रदेश अध्यक्ष परामर्शदाता मंच ,मप्र
पूर्व अकादमिक सचिव , दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ,
9301366637
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